हिंदी भाषी क्षेत्र के बड़े हिस्से में भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा का वोट बैंक है जो किसी भी चुनाव में पार्टी के संगठन को फायदा पहुंचाता है।
रविवार को घोषित चार राज्यों (छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान और तेलंगाना) के विधानसभा चुनाव के नतीजों से भारतीय राजनीति के दो प्रमुख सवालों के जवाब खोजें जा सकते हैं। वो कौन से पहलू हैं जिनसें भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय वर्चस्व को समझा जा सकता है? दूसरा, और कुछ हद तक पहले सवाल से जुड़ा ही जुड़ा दूसरा सवाल है कि, साल दर साल विपक्ष इतना कमजोर क्यों बना हुआ है (विशेष रूप से कांग्रेस पार्टी)?
बीजेपी की जबरदस्त जीत को कैसे समझें
कुछ मायनों में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में बीजेपी की बाहरी जीत एक पहेली की तरह है। हालांकि, यह उनके लिए पहेली अधिक है जो बीजेपी की चुनावी जीत को समझाने के लिए संगठन की मजबूती और जनकल्याण के मॉडल पर अधिक जोर देते हैं। यह पहलू जरूरी है मगर इससे हर जीत का निर्णय नहीं होता है।
राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकारों ने जनकल्याण की योजनाएं लागू कर रखी थी। सर्वे रिपोर्ट्स की मानें तो इस मामले में लोग अशोक गहलोत और भूपेश बघेल से संतुष्ट थे।
साथ ही, इन दोनों राज्यों में विभिन्न गुटों के बीच संघर्ष चलता रहा और बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व ने राज्यों के नेतृत्व को कमजोर करने की लगातार कोशिश की। पिछले पांच सालों में इन दोनों राज्यों में बीजेपी ने विपक्ष के तौर पर इसी भूमिका को निभाया है। मध्य प्रदेश में बीजेपी के राज्य नेतृत्व को दशक के शासन के खिलाफ नाराजगी का सामना करना पड़ रहा था। इसलिए, बीजेपी की हर चुनावी जीत के लिए सिर्फ किसी खास कल्याणकारी योजना या बेहतर संगठन को जिम्मेदार मानने से बचना चाहिए। हालांकि, बीजेपी के मजबूत संगठन का लाभ कर्नाटक जैसे राज्यों के चुनाव में नहीं मिला।
हिंदी भाषी क्षेत्र के बड़े हिस्से में भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा का समर्थक वोट बैंक है जो किसी भी चुनाव में पार्टी के संगठन को फायदा पहुंचाता है। जैसा कि, राजस्थान के एक्सिस इंडिया टुडे के सर्वे में उच्च जातियों ने कांग्रेस को जितने वोट दिए उसके तीन गुना वोट बीजेपी को दिए।
राज्य की राजनीति में लंबे समय से चलने वाले ब्राह्मण, राजपूत और बनिया जातियों के बीच भेद कम हुआ है। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात है कि हिंदी भाषी क्षेत्रों में अन्य पिछड़ी जातियां इस पार्टी के समर्थन का सबसे मजबूत आधार हैं। ऐक्सिस इंडिया टुडे के एक्जिट पोल में OBC वोटरों के बीच बीजेपी की बढ़त पर ध्यान देना चाहिए। 26%–प्वाइंट की लीड राजस्थान के OBC में, 24%–प्वाइंट की लीड मध्य प्रदेश के OBC में और 26%–प्वाइंट की लीड छत्तीसगढ़ के OBC में।
अब यह दावा किया जा सकता है कि OBC की प्रभावशाली जातियों में बीजेपी का मजबूत समर्थन है जिस पर किसी बात का आसानी से असर नहीं पड़ता है। कुछ ऐसे पहलू पर ध्यान देना चाहिए: जैसे 2 मौजूदा मुख्य मंत्रियों का OBC होना और इस बात का लगातार प्रचार करना; राजस्थान में OBC कोटा को बढ़ाने और जाति जनगणना कराने की बात की गई थी; वहीं बघेल खेती पर निर्भर OBC की जातियों जैसे कुर्मी और साहू के बीच काफी लोकप्रिय हैं।
शहरी और प्रगति कर रहे OBC के लोग खुद को नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस की विचारधारा और बीजेपी के करिश्माई नेतृत्व के ज्यादा करीब पाते हैं। JIST – TIF के राजस्थान पर शोध की जांच करें तो हम देखेंगे कि OBC और उच्च जाति के वोटर लगभग एक तरह की सोच रखते हैं। यह पूछे जाने पर कि महंगाई के लिए केंद्र सरकार जिम्मेदार है या राज्य सरकार: 54% उच्च जाति और 48% OBC वोटरों ने राज्य सरकार को जिम्मेदार बताया। वहीं दलितों और जनजातियों में यह प्रतिशत 31% और 33% था। मुफ्त में मिलने वाली सरकारी सुविधाओं के सवाल पर उच्च और प्रभावशाली OBC जातियों (यादव, लोधी, गुज्जर) की सोच अस्पष्ट और बंटी हुई है। इसके उलट इन सुविधाओं का अधिकतर पिछड़ी जातियों, दलितों और जनजातीय वोटरों में अच्छा समर्थन है।
कांग्रेस व विपक्ष का हाल
मोदी ने अपने करिश्माई नेतृत्व में तीनों चुनावों में बड़ा जोखिम लिया है। ऐसा पार्टी के जनाधार को बढ़ाने और आपसी मतभेदों से निपटने के लिए जरूरी था। मोदी किसी भी विपक्षी नेता के सामने एक मजबूत चुनौती हैं, वे सत्ता के खिलाफ किसी भी लहर का चुनावी लाभ लेना अच्छी तरह से जानते हैं। मोदी की व्यतिगत लोकप्रियता के कारण किसी भी बड़े राज्य में कांग्रेस के मौजूदा मुख्यमंत्री ने मोदी काल में बहुमत के साथ सत्ता वापसी नहीं की। ऐसा आखरी बार असम के 2011 के चुनाव में हुआ था जब तरुण गोगोई ने सत्ता में वापसी की थी।
अब अपना ध्यान विपक्ष की कमजोरी की तरफ देते है, खास तौर पर कांग्रेस की ओर। इसमें से ज्यादातर कारण लंबे समय से मौजूद हैं, इसलिए इन्हें आसानी से समझा जा सकता है।
पहला, कांग्रेस के पुराने नेता (कमलनाथ इसका अच्छा उदाहरण हैं) अपने प्रभाव को खोने के एक दशक बाद भी राजनीति में बने हुए हैं। वे न तो पार्टी को किसी प्रगतिशील एजेंडे को अपनाने देते हैं न ही राज्यों के स्तर पर प्रगतिशील विचार वाले किसी नेतृत्व को उभरने देते हैं। चूंकि, पुराने नेता परिस्थिति में किसी तरह का बदलाव नहीं चाहते, इससे पार्टी के भीतर किसी स्वस्थ प्रतियोगिता और नए नेतृत्व की संभावना को खत्म हो जाती है। पुराने नेता जाति जनगणना जैसे नए विचार के लागू होने में रुकावट पैदा करते हैं। इन तीनों चुनावों में मध्य प्रदेश सहित सभी राज्यों में इस दौरान जाति जनगणना का मुद्दा लगभग किनारे कर दिया गया। हालांकि CSDS NDTV के सर्वे में वोटरों के बीच इस मुद्दे की अच्छी सहमति थी।
गहलोत और बघेल जैसे कांग्रेस के मुख्य मंत्रियों के काम का तरीका देखें तो, न सिर्फ उन्होंने अपने प्रतियोगियों को किनारे लगा दिया बल्कि कांग्रेस के राज्य संगठन को भी हाशिए पर डाल दिया था। इसकी जगह पर उन्होंने नौकरशाही और कुछ मंत्रालय के सहायकों के भरोसे अपनी सरकार चलाई। एक कमजोर केंद्रीय नेतृत्व ने इन कमियों से होने वाले नुकसान को और बढ़ा दिया।
हालांकि, संगठन के कमजोर होने का यह नुकसान भी हुआ कि कांग्रेस के मुख्य मंत्रियों के प्रति संतोष के बाद भी इलेक्शन के दिन इस संतुष्टि को वोट में नहीं बदला जा सका। इसी बीच, कांग्रेस ने छत्तीसगढ़ के उत्तरी सरगुजा और दक्षिणी बस्तर क्षेत्र में अपना समर्थन गवां दिया है। यह हमें याद दिलाता है कि स्पष्ट वैचारिक एजेंडा नहीं होना कितना खतरनाक है।
तेलंगाना में कांग्रेस की जीत न सिर्फ संतोष के लिए बल्कि आगे की रणनीति की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। कर्नाटक और तेलंगाना में कांग्रेस की रणनीति उत्तरी भारत में अपनाई गई रणनीति के बिलकुल उलट है। तेलंगाना में दलित और जनजातीय वोटरों को एकजुट करने के प्रयास, किसानों के लिए सब्सिडी जैसे चुनावी वादों ने चुनावी लड़ाई में प्रगतिशील एजेंडे को शामिल कर दिया। इन दोनों राज्यों में कांग्रेस को ऐसे भरोसेमंद नेतृत्व मिले जो विचारधारा के एजेंडे को आगे बढ़ा सकते थे।
अंत में, कांग्रेस भले इस बात के लिए खुद को तसल्ली दे सकती है कि अब वह दक्षिण भारत की प्रमुख पार्टी है। हालांकि, राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी की स्थिति ज्यादा मजबूत है और ऐसा दिखता है कि 2024 या उसके बाद के कुछ सालों में भगवा वर्चस्व को कोई चुनौती नहीं मिलेगी।
स्त्रोत: भास्कर एप, द हिन्दू