नई दिल्ली, 46 साल के एक माली ने केस न किया होता तो इस कंपनी को इतना बड़ा दंड न मिलता और दुनिया के सामने इसकी सच्चाई सामने नहीं आती। एक स्कूल में काम करने वाला यह माली खर-पतवारों को मिटाने के लिए मोंसांटो के बनाए राउंडअप रसायन का छिड़काव करता था। उसे भयंकर किस्म का कैंसर हो गया। उसने मोंसांटो के ख़िलाफ़ मुक़दमा लड़ा और इस रसायन के असर को दुनिया भर में छिपाने के खेल का पर्दाफ़ाश कर दिया। अफसोस उस भयंकर बीमारी से माली बहुत दिनों तक नहीं बच सकेगा मगर उसने अपनी ज़िंदगी अरबों लोगों के नाम कर दी है, जिनके बीच के लाखों लोग हर साल कैंसर के शिकार हो रहे हैं, और उन्हें लगता है कि यह सब राहु केतु की वक्र दृष्टि से हो रहा है।
2014 में श्रीलंका ने इसे बैन कर दिया। वहां किडनी नष्ट होने के बहुत सारे मामले सामने आने लगे थे। धान के किसान इसकी चपेट में आए। इसके इस्तेमाल से पानी ज़हरीला हो गया। जून 2018 में बैन हटा लिया गया क्योंकि चाय बाग़ानों के मालिक दबाव डालने लगे और बताने लगे कि अरबों डालर का नुकसान हो रहा है। थाईलैंड में भी रबर, ताड़ के तेल और फलों में इस्तेमाल होता है। वहां के किसान भी सरकार पर दबाव डालते हैं कि इसके इस्तेमाल पर अंकुश न लगाया जाए। यूरोपीयन यूनियन ने भी इसी दबाव के कारण इस रसायन के लाइसेंस को पांच साल के लिए बढ़ा दिया है। खेल यह है कि मोंसांटो का नाम बदनाम हो चुका था। इसलिए बेयर कंपनी ने इसे अपने नाम से बेचने का फैसला किया है। डाउन टू अर्थ की इस रिपोर्ट में विस्तार से बताया गया है कि इसके बावजूद अनेक रिसर्च में इस रसायन से कैंसर होने और लीवर और किडनी नष्ट होने की बात की पुष्टि हुई है।
चर्चा में क्यों?
हाल ही में जर्मनी की फार्मा कंपनी बायेर (Bayer) के एक खरपतवारनाशी उत्पाद के खिलाफ अमेरिका में हजारों लोगों ने मुक़दमा दायर किया है तथा तर्क दिया जा रहा है कि यह उत्पाद कैंसर का कारक है।
वर्तमान संदर्भ :-
कृषि तथा बागवानी कार्यों के लिये अमेरिका में बहुतायत में इसका प्रयोग किया जाता है। वर्ष 2015 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा किये गए एक शोध से यह पता चला है कि ग्लाइफोसेट संभवतः मानव में कैंसर का कारक (Carcinogenic) है जिसकी वजह से वहाँ ग्लाइफोसेट आधारित उत्पादों का विरोध किया जा रहा है।
ग्लाइफोसेट के वास्तविक प्रभावों के संबंध में अभी भी निश्चित तौर पर कुछ कहना मुश्किल है, साथ ही WHO ने इसे कैंसर के कारक के रूप में संभावित तौर पर ही माना है। इस वजह से जहाँ फ्राँस, इटली तथा वियतनाम ने खरपतवारनाशी में इसके प्रयोग पर पाबंदी लगाई है वहीं अमेरिका, चीन, ब्राज़ील तथा कनाडा इसका समर्थन करते हैं।
भारत में इसका प्रयोग पिछले दो दशकों में काफी बढ़ा है। पहले इसका प्रयोग सिर्फ असम तथा बंगाल के चाय बागानों में किया जाता था लेकिन अब इसका सर्वाधिक प्रयोग महाराष्ट्र में गन्ना, मक्का तथा फलों जैसे-अंगूर, केला, आम व संतरे को उगाने में किया जाता है।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (Indian Council of Agricultural Research-ICAR) के अनुसार, भारत में ग्लाइफोसेट का प्रयोग विशेषकर राउंडअप, ग्लाईसेल तथा ब्रेक नामक खरपतवारनाशी दवाओं में होता है।
ग्लाइफोसेट क्या है?
ग्लाइफोसेट एक खरपतवारनाशी है तथा इसका IUPAC नाम N-(phosphonomethyl) Glycine है। इसका सर्वप्रथम प्रयोग 1970 में शुरू किया गया था। फसलों तथा बागानों में उगने वाले अवांछित घास-फूस को नष्ट करने के लिये इसका व्यापक पैमाने पर उपयोग होता है।
यह एक प्रकार का गैर-चयनात्मक (Non-Selective) खरपतवारनाशी (Herbicide) है जो कई पौधों को नष्ट कर देता है। यह पौधों में एक विशेष प्रकार के प्रोटीन के निर्माण को रोक देता है जोकि पौधों के विकास के लिए सहायक होते हैं।
ग्लाइफोसेट मिट्टी को कसकर बांधे रखता है, इस वजह से यह भूजल में भी नहीं मिलता। यह विशेष परिस्थितियों में 6 महीने तक मिट्टी में बना रह सकता है तथा मिट्टी में बैक्टीरिया द्वारा इसका अपघटन होता है।
हालाँकि शुद्ध ग्लाइफोसेट जलीय या अन्य वन्यजीवों के लिये हानिकारक नहीं है, लेकिन ग्लाइफोसेट युक्त उत्पाद, उनमें मौजूद अन्य अवयवों के कारण विषाक्त हो सकते हैं। ग्लाइफोसेट अप्रत्यक्ष रूप से पारिस्थितिकी को प्रभावित कर सकता है क्योंकि पौधों के नष्ट होने से वन्यजीवों के प्राकृतिक आवास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
इंसानों के ग्लाइफोसेट के बाहरी संपर्क में आने से उनकी त्वचा या आँखों में जलन हो सकती है। इसको निगलने से मुँह तथा गले में जलन, उल्टी, डायरिया आदि लक्षण हो सकते हैं।
ऐसा नहीं है कि किसानों को इसके ख़तरे का पता नहीं है. पिछले साल यवतमाल में छिड़काव के दौरान संपर्क में आने से 23 किसान मारे गए थे। यवतमाल के अस्तपाल के डाक्टर ने भी कहा है कि इस केमिकल के असर में आए कई मरीज़ आते रहते हैं। ग्लायफोसेट के कारण किडनी और लीवर भी नष्ट हो जाता है। न्यूरो की बीमारियां होने लगती हैं। कैंसर तो होता ही है, और भी कई बीमारियों का ज़िक्र है।
इस साल 10 अगस्त को सैन फ्रांसिस्को की एक अदलात ने फैसला सुनाया कि दुनिया भर में सबसे अधिक प्रयोग किए जाने वाले राउंडअप हर्बीसाइड (खरपतवार नाशक) के प्रभाव से ड्वेन जॉनसन, जो सैन फ्रांसिस्को के पास के एक स्कूल में ग्राउंडकीपर थे, को लाइलाज कैंसर हुआ है। जूरी ने सजा और क्षतिपूर्ति के रूप में कृषि प्रौद्योगिकी कंपनी मोनसेंटो को आदेश दिया कि वह जॉनसन को 2116 करोड़ रुपए बतौर मुआवजा दे. बता दें, कि राउंडअप मोनसेंटो की कंपनी है। जॉनसन ने अपनी गवाही में कोर्ट से कहा था कि वह हर्बीसाइड का प्रयोग साल में 20-30 बार करते थे, और कम से कम दो बार उन्हें रसायन से नहाना पड़ा. फिर 2014 में उन्हें गैर-हॉजकिन लिंफोमा हो गया। यह एक दुर्लभ कैंसर है। राउंडअप हर्बीसाइड में पड़ने वाला मुख्य रसायन ग्लाइफोसेट है। मनुष्य और पर्यावरण पर इस रसायन के जहरीले प्रभाव की आशंका के चलते सरकारें और अंतरराष्ट्रीय जन स्वास्थ संगठन इस पर अनुसंधान कर रहे हैं। उदाहरण के लिए 2013 में भारतीय विष विज्ञान अनुसंधान संस्थान ने अपनी रिपोर्ट में कहा था, ‘‘राउंडअप से कैंसर सहित अन्य स्वास्थ्य संबंधी खतरे की गंभीर आशंका है.’’ दो साल बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन की कैंसर पर शोध करने वाली अंतरराष्ट्रीय एजेंसी आइएआरसी ने ग्लाइफोसेट को मनुष्यों के लिए संभवतः कैंसरकारी बताया था। पिछले साल जून में ली मोंडे में प्रकाशित मोनसेंटो पेपर्स के अनुसार इस कंपनी ने आइएआरसी को 2015 की रिपोर्ट के लिए उस संस्था को खूब भला-बुरा कहा था। इन रिपोर्टों के अंग्रेजी अनुवाद के अनुसार कंपनी ने रिपोर्ट को ‘जंक’ अथवा कबाड़ विज्ञान कह कर खारिज कर दिया था।
बहुत से देशों ने ग्लाइफोसेट और उन हर्बीसाइड को, जिनमें इस रसायन का प्रयोग होता है, प्रतिबंधित करने की कोशिश की है. 2013 में अल सल्वाडोर की संसद ने ग्लाइफोसेट वाले कीटनाशकों पर रोक लगा दी। इसके अगले सालों में बेल्जियम, नीदरलैंड्स, न्यूजीलैंड, पुर्तगाल ने ग्लाइफोसेट को प्रतिबंधित कर दिया। फ्रांस में भी इस पर प्रतिबंध के बारे में अच्छी खासी बहस चल रही है। अपने चुनावी वादे में फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल मैक्रों ने इस पर प्रतिबंध लगाने की बात कही थी। हाल में उनकी पार्टी के सांसदों ने उनकी इस योजना को अस्वीकार कर दिया। खेतिहर मजदूरों में किडनी के रोगों की वृद्धि के मद्देनजर, श्रीलंका की सरकार ने ग्लाइफोसेट रसायन वाले कीटनाशकों पर आंशिक रूप से प्रतिबंध लगा दिया था लेकिन बाद में इसे हटा लिया. भारत में, कीटनाशक संबंधी कमजोर नियामक तंत्र और इसके खतरे को पहचानने में सरकार की आनाकानी के चलते, इस रसायन पर गहरी छानबीन नहीं हो सकी है।
कागजों में ग्लाइफोसेट को भारत में केवल चाय और कृषि न होने वाले इलाकों में इस्तेमाल करने की इजाजत है. तो भी इस बात के प्रमाण हैं कि इसका इस्तेमाल व्यापक तौर पर हो रहा है। कृषि मंत्रालय के 2016-17 के प्रोविजनल उपभोग आंकड़ों के अनुसार यह रसायन आयातित हर्बीसाइड के 35 प्रतिशत और स्थानीय स्तर पर उत्पादित हर्बीसाइड के 14.5 प्रतिशत में होता है. पेस्टीसाइड (कीटनाशक) एक्शन नेटवर्क, पेन, के प्रोग्राम कोओर्डिनेटर दिलीप कुमार बताते हैं कि ‘‘गैर चाय फसलों में ग्लाइफोसेट का धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है, जो इसकी पंजीकरण शर्तों के खिलाफ है.” उनकी संस्था कृषि में कीटनाशक के टिकाउ विकल्प पर शोध करती है. कुमार का कहना है, ‘‘ग्लाइफोसेट को फसल लगाने से पहले खेतों में डाला जाता है. तकनीकी रूप में फसल से पहले खेत गैर कृषि इलाका है. ये लोग इस प्रकार नियम को तोड़मरोड़ रहे हैं.’’ कुमार बताते हैं कि ग्लाइफोसेट को गैरकानूनी हर्बीसाइड टॉलरेंट (एचटी) कपास की फसल में भी प्रयोग किया जाता है. यह आनुवांशिक संशोधित कपास है जिस पर हर्बीसाइड का असर नहीं होता. (जब ग्लाइफोसेट को एचटी कपास और उसके आसपास उगे हुए खरपतवार पर छिड़का जाता है तब यह सिर्फ खरपतार को ही नष्ट करता है.)
आईएआरसी की 2015 के अध्ययन के अनुसार रसायन का असर न होने वाले आनुवांशिक संशोधित फसलों के अस्तित्व में आने के बाद से दुनिया भर में ग्लाइफोसेट का इस्तेमाल बढ़ा है। खबरों के अनुसार भारत में भी हर्बीसाइड टॉलरेंट फसलों की गैरकानूनी खेती बढ़ने से ग्लाइफोसेट के प्रयोग में बढ़ोतरी आई है।
इस साल के शुरू में तेलंगाना और आंध्र प्रदेश सरकारों ने ग्लाइफोसेट बेचने वालों पर शिकंजा कसा. फरवरी 2018 के अपने आदेश में आंध्र प्रदेश सरकार ने कहा था, ‘‘ग्लाइफोसेट जैसे रसायन वाले हर्बीसाइड के विवेकहीन इस्तेमाल से पर्यावरण को नुकसान हो रहा है. इसी प्रकार तेलंगाना सरकार ने जून 2018 में आदेश जारी किया कि’ ’अवैध रूप से अस्वीकृत हर्बीसाइड टॉलरेंट कपास की खेती के विस्तार से तेलंगाना में कृषि फसलों में, खासकर कपास में, ग्लाइसोफेट जैसे हर्बीसाइड का अंधाधुंध प्रयोग हो रहा है.’’ इसके बावजूद भी सरकार ने कीटनाशक कानून के तहत इस पर प्रतिबंध नहीं लगाया। राज्य केवल अस्थाई तौर पर कीटनाशकों पर 60 दिनों तक प्रतिबंध लगा सकते हैं। इस प्रतिबंध को वह अतिरिक्त 30 दिनों तक बढ़ा सकता है।
भारत में लागू कीटनाशक नियामकों की एक बड़ी कमजोरी यह है कि इसमें राज्य सरकारों की कोई भूमिका नहीं है. उदाहरण के लिए 2001 में केरल सरकार ने दुनिया भर में व्यापक स्तर पर प्रयोग किए जाने वाले कीटनाशक इंडोसल्फान को प्रतिबंधित कर दिया था. फिर 2002 में यह प्रतिबंध हटा लिया गया (हवाई छिड़काव पर प्रतिबंध जारी रहा). जबकि, इस बात के सबूत हैं कि इस रसायन के असर से विलंबित पौरुष, शारीरिक विकृति और मानसिक रोग होते हैं). बाद में सुप्रीम कोर्ट ने 2011 में देश भर में इंडोसल्फान के प्रयोग पर प्रतिबंध लगा दिया।
मैंने पेन के निदेशक दोंती नरसिम्हा रेड्डी से फोन पर बात की. उन्होंने बताय, ‘‘भारत में कीटनाशक पर लागू होने वाले नियमों में बहुत सी खामियां हैं। ये नियम केन्द्र से नियंत्रित हाते हैं और इनमें राज्यों का बहुत कम हस्ताक्षेप होता है। इसके अलावा सरकार टिकाउ विकास के नजरिए से कीटनाशकों पर ध्यान नहीं दे रही है. इसे जन स्वास्थ की चिंताओं के नजरिए से देखा जाना चाहिए लेकिन यह फाइलों को यहां से वहां ले जाने की प्रक्रिया बन कर रह गया है।’’
भारत में ग्लाइफोसेट के प्रयोग पर कीटनाशक कानून 1968 लागू होता है। 1970 में कृषि मंत्रालय ने दो संस्थाओं वाले केन्द्रीय कीटनाशक बोर्ड और पंजीकरण समिति, सीआईबीआरसी, का गठन किया. कृषि मंत्रालय की सीआईबी एक स्वायत्त संस्था है जो कीटनाशकों के उत्पादन, बिक्री, भंडारण और ढुलाई को नियंत्रित करने के साथ मानव स्वास्थ पर इसके खतरे का आंकलन करती है। वहीं पंजीकरण समिति का काम आयातकर्ता या उत्पादकों के दावों और कीटनाशकों की जांच कर पंजीकरण करना है। जब मैंने कीटनाशन नियमों पर टिप्पणी के लिए सीआईबीआरसी के सचिव को ईमेल किया तो उनका कहना था कि इन सवालों के लिए सीआईबीआरसी सही जगह नहीं है और मुझे कृषि मंत्रालय के पौध संरक्षण विभाग से संपर्क करना चाहिए। मैंने कृषि सहकारिता और किसान विभाग के सचिव और पौध संरक्षण विभाग के एक निदेशक को ईमेल किया लेकिन इन पंक्तियों के लिखे जाने तक कोई जवाब नहीं मिला।
कीटनाशक कानून में यह अतिरिक्त व्यवस्था है कि कीटनाशकों के उत्पादन, बिक्री और वितरण के लिए कंपनियों को राज्य सरकार से लाइसेंस लेना होगा. एक अन्य एजेंसी- भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण – खाद्य पदार्थों में कानूनी रूप से स्वीकार्य अवशिष्ट की सीमा तय करने वाली संस्था. इसके अतिरिक्त 1986 का पर्यावरण सुरक्षा कानून यह अधिकार देता है कि वह पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले प्रदूषक (साथ ही कीटनाशक) के जमाव को रोकने के लिए निर्देश जारी करे।
इतनी सारी सरकारी व्यवस्थाओं के बावजूद लालफीताशाही नियामक प्रक्रिया पर हावी है। उदाहरण के लिए 2008 में सरकार ने 1968 के कीटनाशक कानून को बदलने के लिए लोकसभा में कीटनाशक प्रबंधन बिल पेश किया. रेड्डी ने मुझे बताया, ‘‘दोनों कानूनों के फ्रेमवर्क में बहुत अंतर नहीं है’’. नागरिक समूहों ने विस्तृत समीक्षा के बाद इस कानून में 61 बदलावों का सुझाव दिया. कीटनाशकों की परिभाषा, पर्यावरण पर पड़ने वाले असर का आंकलन कर पंजीकरण प्रक्रिया को मजबूत बनाना और उत्पादों की पैकिजिंग और लेबलिंग में नई अवश्यकताएं, जैसे उपाय सुझाए गए. वह कहते हैं, ‘‘जब हमने इस बिल के प्रावधानों की जांच की तो पता चला कि इसे उद्योग के हितों को ध्यान में रख कर लिखा गया है.’’ फिलहाल यह बिल नागरिक समूहों के दबाव और कृषि के लिए संसद की स्थाई समिति के सुझावों के कारण लंबित है।
इस साल संसद में पूछे गए एक सवाल का जो जवाब सरकार ने दिया उससे जारी नियामक फ्रेमवर्क की अनिश्चितताओं को समझा जा सकता है. तेलगु देशम पार्टी के नारामल्ली शिवप्रसाद ने संसद में पूछा कि क्या विवादास्पद ग्लाइफोसेट हर्बीसाइड का प्रयोग गैर कानूनी तरीके से एचटी कपास के लिए हो रहा है और क्या पर्यावरण पर इसके विषाक्त असर का अध्ययन किया गया है? शिवप्रसाद ने यह भी पूछा कि 2013 में 66 संभवतः खतरनाक कीटनाशकों, जिन पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबंध या रोक लगी है, उनकी समीक्षा के लिए बनी अनुपम वर्मा समिति ने क्या इस रसायन पर प्रतिबंध की समीक्षा की है. कृषि राज्य मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत के पास रसायन के जहरीलेपन की कोई विशेष जानकारी नहीं थी और ग्लाइफोसेट के अवैध प्रयोग के बारे में भी कोई जानकारी नहीं थी. शेखावत ने बताया कि वर्मा समिति ने ग्लाइफोसेट की समीक्षा नहीं की है क्योंकि इसे किसी भी अन्य देश में प्रतिबंधित नहीं किया गया है. एक ईमेल के जवाब में वर्मा ने बताया कि ‘‘ग्लाइफोसेट समिति के अधिकार क्षेत्र से बाहर है।’’
एलायंस फॉर सस्टेनेबल एंड होलिस्टिक एग्रीकल्चर की संयोजक कविता कुरुगंती मानती हैं कि नियामक प्रक्रिया कमजोर हैं। उनका यह एलायंस कृषि, आजीविका और खाद्य सुरक्षा क्षेत्र में काम करने वाले 400 भारतीय संगठनों का गठबंधन है. वह कहती हैं, ‘‘जॉनसन वाला केस एक व्यक्ति को हुए नुकसान से जुड़ा है जो यह साबित कर सका कि उसको हुए नुकसान के लिए राउंडअप एक प्रमुख कारण था.’’ हमारे देश में ऐसे बहुत से लोग होंगे जो कारण और प्रभाव के संबंध को साबित नहीं कर पाएंगे. नियामक संस्थाओं के लिए जरूरी है कि वे ग्लाइफोसेट पर बड़ा कदम उठाए।’’
कविता कुरुगंती और अन्य एक्टीविस्टों ने 20 अक्टूबर 2017 को सर्वोच्च अदालत में रिट पिटीशन दायर कर दावा किया कि 99 ऐसे कीटनाशकों को भारत में उत्पादन करने की अनुमति दी गई है जो दुनिया के कम से कम 1 देश में प्रतिबंधित हैं. पिटीशन में ग्लाइफोसेट से जुड़े मामलों को उठाते हुए कहा गया है कि यह हैरान करने वाली बात है कि भारत सरकार द्वारा समीक्षा की गई कीटनाशकों की सूची में ग्लाइफोसेट का नाम नहीं है बावजूद इसके कि ऐसे कई सारे साक्ष्य उपलब्ध हैं जो इसके सुरक्षित होने पर सवालिया निशान लगाते हैं। पिटीशन में ऐसे मामलों पर जोर दिया गया है जिनमें कीटनाशक के कारण जहर का तेजी से फैलना और इसके कारण मौत, अस्पताल में भर्ती और बीमारी के मामले सामने आए हैं. पिटीशन में यह भी दावा किया गया है कि इस बात के ढेरों साक्ष्य हैं कि कृषि में कीटनाशकों के प्रयोग के कारण किसान और खेतिहर मजदूरों को कई बीमारियों का समाना करना पड़ रहा है. इन मामलों में कैंसर और प्रजनन में समस्या और मानसिक रोग भी शामिल हैं.’’ साक्ष्य के रूप में उन्होंने केरल में इंडोसल्फान के प्रयोग से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ पर पड़े असर, महाराष्ट्र के यवतमाल में कीटनाशक के जहर से चार साल में 272 मौतें, पंजाब में रसायनिक कीटनाशकों के इस्तेमाल से पर्यावरण प्रदूषण, जल प्रदूषण और कैंसर के मामलों में हुई बढ़ोतरी, और बिहार के सारन में 2013 में कीटनाशक मोनोक्रोटोफोस मिले मिड डे मील को खाने से 23 बच्चों की मौत की घटनाओं को अदालत के सामने पेश किया था इस मामले में सुनवाई चल रही है।
एलायंस फॉर सस्टेनेबल एंड होलिस्टिक एग्रीकल्चर की संयोजक कविता कुरुगंती मानती हैं कि नियामक प्रक्रिया कमजोर हैं. उनका यह एलायंस कृषि, आजीविका और खाद्य सुरक्षा क्षेत्र में काम करने वाले 400 भारतीय संगठनों का गठबंधन है. वह कहती हैं, ‘‘जॉनसन वाला केस एक व्यक्ति को हुए नुकसान से जुड़ा है जो यह साबित कर सका कि उसको हुए नुकसान के लिए राउंडअप एक प्रमुख कारण था.’’ हमारे देश में ऐसे बहुत से लोग होंगे जो कारण और प्रभाव के संबंध को साबित नहीं कर पाएंगे. नियामक संस्थाओं के लिए जरूरी है कि वे ग्लाइफोसेट पर बड़ा कदम उठाए.’’
कविता कुरुगंती को विश्वास है कि भारत में ग्लाइफोसेट के खतरे को पहचान लिया जाएगा. ‘‘जल्द ही ग्लाइफोसेट के जहर के सबूतों को भारत के समक्ष लाया जाएगा. भारत में हो रही खेती में कीटनाशको का जिस तरह से सीधा और अलग अलग स्तर पर घुसपैठ है उसे देखते हुए लगता है कि नियामक संस्थाओं की नींद खुलने तक हम बहुत बड़ी त्रासदी झेल चुके होंगे. उम्मीद है कि हमारे किसानों और खेतिहर मजदूरों के जीवन के अधिकार के प्रति सुप्रीम कोर्ट संज्ञान लेगी और सरकार को ग्लाइफोसेट और अन्य जहरीले कीटनाशकों पर रोक लगाने का निर्देश देगी।’’